Saturday 18 October 2014

(10) दन्तेश्वरी शक्तिपीठ - दंतेवाड़ा

(10)  दन्तेश्वरी शक्तिपीठ - दंतेवाड़ा 




दन्तेश्वरी शक्तिपीठ छत्तीसगढ जगदलपुर के दंतेवाड़ा में काकतीय शासकों के इष्टदेव के नाम पर है । परंपरागत रूप से वह कुलदेवी की (परिवार देवी) है बस्तर राज्य में ।देवी सती का एक दांत यहां गिर गया था यह एक प्राचीन पौराणिक कथा के अनुसार 14वी सदी में यहां मंदिर बनाया गया था चालुक्य मंदिर वास्तुकला की दक्षिण भारतीय शैली में किंग्स दंतेश्वरी माई की मूर्ति काले पत्थर से बाहर गढे हुए है । मंदिर गर्भ गृह, महा मंडप, मुख्यमंत्री और सभा मंडप के रूप में चार भागों में बांटा गया है । 












दंतेश्वरी मंदिर -दन्तेवाड़ा - एक शक्तिपीठ - यहाँ गिरा था सती का दांत । छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र की हसीन वादियों में स्थित है दंतेवाड़ा । गावों और जंगलों से आदिवासियों दशहरे पर हर साल प्राचीन मूर्ति को मंदिर से बाहर लाकर एक व्यापक जुलूस में शहर के चारों ओर ले जाया जाता है । हजारों में भक्तगण श्रद्धांजलि अर्पित करने इकटठा होते  हैं । बस्तर दशहरा एक लोकप्रिय पर्यटक आकर्षण है । दंतेश्वरी मंदिर शंखिनी और डंकिनी नदीयों के संगम पर स्थित है । दंतेश्वरी देवी को बस्तर क्षेत्र की कुलदेवी का दर्जा प्राप्त है । 



इस मंदिर की एक खासियत यह है कि माता के दर्शन करने के लिए आपको लुंगी या धोति पहनकर की मंदिर में जाना होगा । मंदिर में सिले हुए वस्त्र पहन कर जानें की मनाही है । ऐसा माना जाता है कि माँ दंतेश्वरी मंदिर का निर्माण बस्तर के पहले काकातिया राजा अन्नम देव वारंगल से यहां आए थे । उन्हें दंतेश्वरी मैयया का वरदान मिला था । कहा जाता है कि अन्नम देव को माता ने वर दिया था कि जहां तक वे जांएगे, उनका राज वहां तक फेलेगा । शर्त ये थी कि राजा को पीछे मुड़कर नहीं देखना था और मैयया उनके पीछे-पीछे जंहा तक जाती, वहां तक की जमीन पर उनका राज हो जाता । अन्नम देव के रूकते ही मैयया भी रूक जाने वाली थी ।











अन्नम देव ने चलना शुरू किया और वे कई दिन और रात चलते रहे । वे चलते-चलते शंखिनी और डंकिनी नदियों के संगम पर पहुंचे । यहां उन्होंने नदी पार करने के बाद माता के पीछे आते समय उनकी पायल की आवाल महसूस नहीं की । सो वे वहीं रूक गए और माता के रूक जाने की आंशका से उन्होंने पीदे पलटकर देखा । माता तब नदी पार कर रही थी । राजा के रूकते ही मैयया भी रूक गई और उन्होंने आगे जाने से इनकार कर दिया । दरअसल नदी के जल में डूबे पैरों में बंधी पायल की आवाज पानी के कारण नहीं आ रही थी और राजा इस भ्रम में कि पायल की आवाज नहीं आ रही है, शायद मैया नहीं आ रही है सोचकर पीछे पलट गए । वचन के अनुसार मैयया के लिए राजा ने शंखिनी-डंकिनी नदी के संगम पर एक सुन्दर घर यानि मंदिर बनवा दिया । तब से मैयया वहीं स्ािापित है ।












दंतेश्वरी मंदिर के पास ही शंखिनी और डंकिन नदी के संगम पर माँ दंतेश्वरी के चरणों के चिन्ह मौजूद है और यहां सच्चे मन से की गई मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होती है । दंतेवाड़ा में माँ दंतेश्वरी की षट्भुजी वाले काले ग्रेनाइट की मूर्ति अद्वितीय है । छह भुजाओं में दाएं हाथ में शंख, खड्ग , त्रिशुल और बांए हाथ में घंटी, पदय और राक्षस के बाल मांई धारण किए हुए है । यह मूर्ति नक्काशीयुक्त है और ऊपरी भाग में नरसिंह अवतार का स्वरूप है । माई के सिर के ऊपर छत्र है, जो चांदी से निर्मित है । वस़़्त्र आभूषण से अंलकृत है । द्वार पर दो द्वारपाल दाएं -बाएं खड़े हैं जा चार हाथ युक्त हैं । बाएं हाथ सर्प और दांए हाथ गदा लिए द्वारपाल वरद मुद्रा में हैं ।



 इक्कीस स्तम्भों से युक्त सिंह द्वार के पूर्व दिशा में दो सिंह विराजमान जो काले पत्थर के हैं । यहां भगवान गणेश, विष्णु,शिव आदि की प्रतिमाएं विभिन्न स्थानों में प्रस्थापित हैं । मंदिर के गर्भ गृह में सिले हुए वस्त्र पहनकर प्रवेश प्रतिबंधित है । मंदिर के मुख्य द्वार के सामने पर्वतीयकालीन गरूड़ स्तम्भ से अडढवस्थित है । बत्तीस काष्ठडढ स्तम्भों और खपरैल की छत वाले महामण्डप मंदिर के प्रवेश के सिंह द्वार का यह मंदिर वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है । मांई जी का प्रतिदिन श्रृंगार के साथ ही मंगल आरती की जाती है । 






फाल्गुन में होता है मड़ई आयोजन जिसमें होली से दस दिन पूर्व यहां फाल्गुन मड़ई का आयोजन होता है । मांई की डोली के साथ ही फाल्गुन नवमीं, दशमी, एकादशी और द्वादशी को लमहा मार, कोड़ही मार, चीतल मार और गौर मार की रस्म होती है । मंडई के अंतिम सामूहिम नृत्य में सैंकड़ों युवक-युवती शामिल होते हैं और रात भर इसका आंन्द लेते हैं । फाल्गुन मड़ई में दंतेश्वरी मंदिर में बस्तर अंचल के लाखों लोगों की भागीदारी होती है ।


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